जुर्म कोई नहीं पर गुनहगार थे
हस्र पर मेरे मुंसिफ भी लाचार थे
बेख़बर खोई थी वो चकाचौंध में
बोलियाँ लग गई सब खरीदार थे
रह सके क्यों नहीं बावफ़ा मुझसे वो
ऐ ख़ुदा जिनपे मेरे ही उपकार थे
मोल कोई चुका मैं क्यों पाया नहीं
माँ ने मुझपे लुटाए तो संसार थे
खुद मैं सजती रही हर घड़ी लुटने को
कौन खरीदार थे कौन दुकाँदार थे
नींद अच्छी आती झोपड़े में मुझे
कब हमें महलों से कोई दरकार थे
‘अश्क’ किस्मत पे अपनी तू रोना नहीं
जो गए वो न तेरे तलबगार थे
अशोक ‘अश्क’, समस्तीपुर, बिहार.