ग़ज़ल
ग़ज़ल; मुकद्दर छीन लेता है
अमीरे शह्र चक्कर कुछ चलाकर छीन लेता है ।
गरीबों के यतीमों के मुकद्दर छीन लेता है ।।
ज़रा मुस्कान आई के अचानक ग़म कोई देकर ,
न जाने क्यूं मेरी ख़ुशियां वो अक्सर छीन लेता है ।
बड़ों की प्यास होती है बड़ी ये देखा है अक्सर ,
कई नदियों का पानी इक समुंदर छीन लेता है ।
कभी वो आग को गुलज़ार कर देता है कुदरत से ,
कभी सहरा में भी वो सर से चादर छीन लेता है ।
हो नंबर लाख ज्यादा भी मगर सर्विस नहीं मिलती ,
ये आरक्षण मेरे बच्चों से अवसर छीन लेता है ।
सदा अख़्तर शुमारी में ही कटती हैं मेरी रातें ,
तेरी यादों का लश्कर है जो बिस्तर छीन लेता है ।
‘सुमन’ सपने में देखूं जो हंसी लम्हे ख़ुशी के पल ,
मुकद्दर आँखों से मेरी वो मंज़र छीन लेता है ।