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ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान: गांधी के साथ अहिंसा और देशभक्ति कभी नहीं छोड़ा

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान: वो पठान देशभक्त जिन्होंने गांधी का रास्ता कभी नहीं छोड़ा.

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने 1930 के दशक में सेवाग्राम में गांधी के साथ ख़ासा वक़्त बितायाUniversal Images Group via Getty Images
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने 1930 के दशक में सेवाग्राम में गांधी के साथ ख़ासा वक़्त बिताया. Universal Images Group via Getty Images

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान,(Abdul Ghaffar Khan) जिन्हें ख़ान साहब, बादशाह ख़ान, या सीमांत गांधी के नाम से जाना जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी अहिंसा के सिद्धांतों को समर्पित कर दी। छह फ़ीट चार इंच का क़द, सीधी कमर, दयालु आँखें, और अदम्य साहस के धनी बादशाह ख़ान, महात्मा गांधी से प्रेरित होकर उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में अहिंसा का अनोखा आंदोलन चलाने वाले पहले पठान थे।

अहिंसा का पथ और ख़ुदाई ख़िदमतगार आंदोलन

पठानों को पारंपरिक रूप से एक योद्धा समुदाय के रूप में देखा जाता था, लेकिन बादशाह ख़ान ने इस छवि को बदलकर अहिंसा को अपनी पहचान बना दिया। उन्होंने 1929 में ख़ुदाई ख़िदमतगार नामक आंदोलन की शुरुआत की। यह संगठन, जिसे “लाल कुर्ती आंदोलन” भी कहा जाता था, अहिंसा और सामाजिक सेवा पर आधारित था। 1930 के दशक में महात्मा गांधी के साथ उन्होंने सेवाग्राम में काफी समय बिताया और रवींद्रनाथ टैगोर से मिलने शांति निकेतन भी गए।

जेल में 27 साल की यातनाएँ

बादशाह ख़ान ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा जेल में बिताया। उन्होंने अपनी आत्मकथा माई लाइफ़ एंड स्ट्रगल में जेल के दिनों का वर्णन किया है। 1921 में पेशावर जेल में उनके लंबे क़द के कारण उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनकी कोठरी में सूरज की रोशनी तक नहीं आती थी, और कपड़े इतने तंग थे कि नमाज़ पढ़ते समय उनका पायजामा फट जाता था।

ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कई वर्षों तक जेल में रखा। लेकिन उनकी कठिनाइयाँ यहीं समाप्त नहीं हुईं। आज़ादी के बाद पाकिस्तान सरकार ने भी उन्हें कई बार देशद्रोह के आरोप में जेल में डाला। 1948 में स्वतंत्रता के केवल दस महीने बाद, उन्हें मॉन्टगोमरी जेल में तीन साल की सज़ा सुनाई गई।

क़िस्साख़्वानी बाज़ार की गोलीबारी

1930 में महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह का असर उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में भी पड़ा। 23 अप्रैल 1930 को ग़फ़्फ़ार ख़ान और उनके सहयोगियों की गिरफ़्तारी के बाद पेशावर में भारी प्रदर्शन हुआ। क़िस्साख़्वानी बाज़ार में अंग्रेज़ी सेना ने निहत्थी भीड़ पर गोली चलाई, जिसमें 250 से अधिक लोग मारे गए। इसके बावजूद पठानों ने हिंसा का सहारा नहीं लिया। गढ़वाल राइफ़ल्स के भारतीय सैनिकों ने भी अहिंसा का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए गोली चलाने से इनकार कर दिया।

भारत विभाजन का विरोध

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने भारत विभाजन का सख्त विरोध किया। राजनयिक नटवर सिंह अपनी किताब वॉकिंग विद लायंस में लिखते हैं कि कांग्रेस के पाँच प्रमुख नेताओं — महात्मा गांधी, ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद — ने विभाजन का विरोध किया था। उन्हें लगा कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है। विभाजन के बाद, उन्होंने पाकिस्तान की संविधान सभा में शामिल होकर देश और झंडे के प्रति निष्ठा की शपथ ली।

निर्वासन और अफ़ग़ानिस्तान में जीवन

1961 तक पाकिस्तानी सरकार ने उन्हें ‘देशद्रोही’ और ‘अफ़ग़ान एजेंट’ घोषित कर दिया। इसके बाद, उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में शरण ली। अफ़ग़ानिस्तान में उन्हें जलालाबाद में एक घर दिया गया, जहाँ उन्होंने सादगीपूर्ण जीवन बिताया। वह ज़मीन पर बैठकर खाना खाते और चारपाई पर सोते थे।

भारत में वापसी और गांधीवाद की आलोचना

1969 में इंदिरा गांधी से काबुल में मुलाक़ात के बाद, बादशाह ख़ान ने गांधी शताब्दी समारोह में शामिल होने के लिए भारत आने की स्वीकृति दी। 22 साल बाद भारत लौटने पर उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया। संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “आप गांधी को उसी तरह भुला रहे हैं जैसे आपने गौतम बुद्ध को भुला दिया था।” उनके इस कथन ने पूरे देश को झकझोर दिया।

सोवियत हस्तक्षेप का विरोध

अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के प्रति उनका रुख शुरुआत में नरम था, लेकिन बाद में उन्होंने इसका विरोध किया। भारत के प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से उन्होंने सोवियत नेता ब्रेज़नेव से मुलाक़ात कराने का अनुरोध किया ताकि अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत सेना को हटाया जा सके। इंदिरा गांधी ने इस संदेश को सोवियत राजदूत और अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री तक पहुँचाया।

भारत रत्न और अंतिम विदाई

1987 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। 20 जनवरी 1988 को 98 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, उन्हें जलालाबाद में उनके घर के अहाते में दफ़नाया गया। उनके अंतिम संस्कार में भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़िया-उल-हक़ दोनों शामिल हुए।

विरासत

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान की ज़िंदगी उनके अद्वितीय साहस, अहिंसा के प्रति उनकी निष्ठा, और मानवता के प्रति उनके प्रेम की मिसाल है। उनकी विरासत हमें यह सिखाती है कि सच्चा साहस केवल शस्त्रों से नहीं, बल्कि शांति और सत्य के पथ पर चलकर भी दिखाया जा सकता है। उनके आंदोलन और उनके विचार आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।

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