खुद को तबाह कर के आखिर ये हम ने जाना ,
आसां नहीं किसी के दिल में जगह बनाना
झोली तेरी भरी गर रौशन भी घर है तेरा,
इक प्रेम का तू दीपक मुफलिस के घर जलाना
बचपन था वो निराला क्या दौर था सुहाना ,
प्यारा सा मां का आंचल वो गोद में बिठाना
बन आदमी देखो खुद को समझे वो खुदा है ,
औरत ने जन्मा उसको तुम आइना दिखाना
शिकवा करू न रब से बस इल्तिज़ा यही है,
गुलशन मिले ना गर फिर खारो से घर सजाना
एहसान तेरा हम पर कुछ इस कदर हुआ है,
ग़म की शक्ल में तेरा इस ज़िन्दगी में आना
अश्को से वास्ता मेरे दर्द से न नाता ,
तुम कौन हो मेरे फिर कैसा ये हक जताना
श्वेता साँची, जबलपुर, मध्यप्रदेश.