कविताभाषा-साहित्य
लोग फ़रिश्ते लगते थे – विनोद कुमार
राह ग़लत जाते ही घर के सब समझाने लगते थे।
दौर भी वो कितना सुंदर था लोग फ़रिश्ते लगते थे।
गुल्ली-डंडा लफ्फू-डांड़ा चिभ्भी चइयां खेल थे जब
छुट्टी के दिन मत पूछो हर बाग़ में मेले लगते थे।
जब तक प्यास बुझाकर सावन लौट नहीं जाता था घर
तब तक अमियां निमिया की डरिया पर झूले लगते थे।
होली का तुम हाल न पूछो रंग लगाना भी फ़न था
तीन दिनों तक सब के सब इक जैसे चेहरे लगते थे।
चूं-चूं वाले जूते लेकर जब आते थे बाबू जी
खुशियाँ अम्बर हो जाती थीं पांव परिंदे लगते थे।
विनोद कुमार, प्रयागराज